तेरहवीं और मृत्युभोज पर रोक लगाना सही या गलत, क्या कहते हैं संत, शास्त्र और कानून
झांसी के रेवन गांव ने तेरहवीं और मृत्युभोज पर रोक लगाने की पहल की है। राजस्थान सरकार के मृत्युभोज निवारण अधिनियम और अन्य गांवों की इस दिशा में की गई पहल पर एक नजर।
नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के रेवन गांव ने एक अनूठी पहल करते हुए तेरहवीं और मृत्युभोज जैसे रिवाजों पर रोक लगाने का फैसला किया है। गांव की पंचायत ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया है कि अब गांव में किसी परिजन की मृत्यु के बाद तेरहवीं या मृत्युभोज का आयोजन नहीं किया जाएगा। इस फैसले की चारों ओर प्रशंसा हो रही है, लेकिन यह पहला मौका नहीं है जब किसी गांव ने इस तरह की पहल की हो।
रेवन गांव की पंचायत का ऐतिहासिक फैसला
रेवन गांव की पंचायत ने निर्णय लिया है कि यदि कोई परिवार अपने मृत परिजन के लिए कुछ करना चाहता है, तो वह मृत्युभोज की जगह गरीबों को दान कर सकते हैं या सार्वजनिक हित का कोई काम कर सकते हैं। इस निर्णय के बाद गांव में इसे लेकर सकारात्मक माहौल बना हुआ है, और लोग इसे खुले दिल से अपना रहे हैं।
अन्य गांवों और राज्यों में भी उठ चुके हैं ऐसे कदम
रेवन गांव की यह पहल नई नहीं है। इससे पहले झांसी के उल्दन गांव के अहिरवार समाज ने मृत्युभोज के खिलाफ सख्त कदम उठाते हुए मृत्युभोज करने वाले परिवार का सामाजिक बहिष्कार करने का फैसला किया था। वहीं, राजस्थान सरकार ने भी मृत्युभोज पर कानूनी पाबंदी लगाई है, जिसके तहत यह एक अपराध माना जाता है।
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मृत्युभोज पर राजस्थान का कानून
राजस्थान सरकार ने 1960 में ‘राजस्थान मृत्युभोज निवारण अधिनियम’ पारित किया था, जिसके तहत राज्य में किसी भी व्यक्ति द्वारा मृत्युभोज का आयोजन करना या इसमें शामिल होना अवैध है। इस कानून के अनुसार, दोषी पाए जाने पर एक साल के कारावास और 1000 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है।
राजस्थान मृत्युभोज निवारण अधिनियम, 1960 | प्रावधान |
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कोई भी व्यक्ति मृत्युभोज का आयोजन नहीं करेगा | 1 साल की जेल |
कोई भी व्यक्ति इसमें शामिल नहीं होगा | 1000 रुपये जुर्माना |
इसके लिए किसी पर दबाव नहीं डाला जाएगा |
भारत में मृत्युभोज का विरोध
मृत्युभोज का विरोध भारत में आज से नहीं, बल्कि स्वतंत्रता से पहले से होता आ रहा है। आर्यसमाज और अर्जक संघ जैसे संगठनों ने उत्तर भारत के राज्यों में इसके खिलाफ जागरूकता फैलाई है। खासकर कोविड-19 महामारी के दौरान, जब अंतिम संस्कार के तरीके बदल गए थे, मृत्युभोज के खिलाफ आवाजें और भी मजबूत हो गई थीं।
क्या कहते हैं शास्त्र?
ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद के अनुसार, शास्त्रों में मृत्युभोज की परंपरा का उल्लेख है, जिसमें तीन प्रकार के भोजन का प्रावधान है। हालांकि, शास्त्र केवल ब्राह्मणों को भोजन कराने की बात करते हैं, लेकिन सगे-संबंधियों को भोजन कराने का कोई उल्लेख नहीं है। शंकराचार्य का कहना है कि मृत्युभोज में आडंबर से बचना चाहिए और इसे कर्ज लेकर नहीं करना चाहिए।
बिहार में मृत्युभोज के विरोध का अनोखा मामला
जहां एक ओर राजस्थान में मृत्युभोज के खिलाफ सख्त कानून लागू है, वहीं बिहार के सहरसा जिले में एक गांव के निवासी ने मृत्युभोज की जगह गांव में पुस्तकालय खोलने का फैसला किया था। लेकिन इस पहल के चलते उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था।
मृत्युभोज की प्रासंगिकता पर सवाल
मृत्युभोज को परलोक सुधारने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन आज के समय में इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि व्यक्ति के अच्छे कर्म ही उसके परलोक को सुधारते हैं, और मृत्युभोज जैसी परंपराएं अब केवल आडंबर बनकर रह गई हैं।
समाप्ति: बदलते समय के साथ नई सोच
रेवन गांव की यह पहल इस बात का उदाहरण है कि समाज धीरे-धीरे पुरानी परंपराओं से आगे बढ़ रहा है और नई सोच को अपना रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में अन्य गांव और समाज भी इस तरह की पहल को अपनाते हैं या नहीं।